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बुधवार, 24 अप्रैल 2024

७६४.आँखों से बात

 


बहुत दिन हुए,

बालकनी में चलते हैं,

बात करते हैं. 


ऐसे बात करते हैं 

कि मुंडेर पर बैठी चिड़िया 

बिना डरे बैठी रहे,

कलियाँ रोक दें खिलना,

सूखे पत्ते चिपके रहें शाखों से,

हवाएं कान लगा दें,

दीवारें सांस रोक लें,

ठिठककर रह जाएं 

सूरज की किरणें. 


आज कुछ बात करते हैं,

इस तरह बात करते हैं 

कि बात करना छिपा न रहे,

पर बात का पता भी न चले.


आज कुछ अलग करते हैं,

होंठों को सिल लेते हैं,

आज आँखों से बात करते हैं. 


शुक्रवार, 19 अप्रैल 2024

७६३. ब्रह्मपुत्र से



 

ब्रह्मपुत्र,

कल शाम तुम्हारे पानी में 

जो सूरज डूबा था,

अब तक निकला ही नहीं. 


खोजो उसे,

निकालो जल्दी से,

कहीं दम न घुट जाए उसका. 


इतना भी क्या प्रेम सूरज से

कि जान ही ले लो उसकी,

सतह पर आने ही न दो उसे. 


आकाश को उसका इंतज़ार है,

न जाने कितनी आँखें 

उसे देखने को तरस रही हैं.


चाँद भी थककर सो गया है,

वह भी जानता है 

कि भले ही वह ज़्यादा सुन्दर हो,

सूरज की जगह नहीं ले सकता. 


ब्रह्मपुत्र,

कभी ध्यान से देखो,

डूबते हुए सूरज से 

कहीं ज़्यादा अच्छा लगता है 

उगता हुआ सूरज. 


रविवार, 14 अप्रैल 2024

७६२.पहाड़ों पर धुंध

 

लम्बे-ऊंचे पेड़,

जो कभी ढलान पर उगे थे, 

हमने काट दिए हैं,

पहाड़ों के सीने में घुसकर 

हमने निकाल लिए हैं 

दबे हुए खनिज. 

 

जहाँ पगडंडियाँ भी नहीं थीं,

वहां हमने बना ली हैं सड़कें,

जहाँ चरवाहे भी नहीं जाते थे,

वहां हम मनाने लगे हैं पिकनिक. 

 

चिड़ियाँ चहचहाती थीं जहाँ,

वहां अब गूंजते हैं फ़िल्मी गाने,

खो चुके हैं पहाड़ अब 

अपना सारा पहाड़पन. 

 

पहाड़ अब नंगे हैं,

क़रीब से देख रही हैं उन्हें 

हज़ारों लाखों नज़रें,

मुग्ध हो रही हैं 

उनकी सुंदरता पर. 

 

पहाड़ कोशिश में हैं 

कि अपना नंगापन छिपा लें,

धुंध उनका पैरहन है. 





सोमवार, 8 अप्रैल 2024

७६१. ख़ामोश झील पर चांद

 


पर्दे के पीछे तेरा रूप दमकता है,

जैसे शाख़ों के पीछे आफ़ताब चमकता है. 


तेरे गालों पर झुकी हुई बालों की लट,

जैसे कोई भंवरा फूल पर उतरता है. 


तेरे होंठों पर खिली ये मासूम-सी मुस्कान,

जैसे पहाड़ों के बीच से बादल गुज़रता है. 


ये काजल की लक़ीरें, ये ख़ूबसूरत आँखें,

जैसे पत्तों में सिमटकर फूल महकता है. 


मेरे मन के वीराने में तेरे प्यार का एहसास,

जैसे राख के अंदर कोई शोला भड़कता है. 


रात तेरी याद कुछ इस तरह आती है,

जैसे ख़ामोश झील पर चांद उतरता है. 


तू जो हंसती है, तो हरेक शै हंसती है,
तू जो रोती है, तो ज़र्रा-ज़र्रा सिसकता है. 

मंगलवार, 2 अप्रैल 2024

७६०.नरम-दिल पहाड़

 


पतली घुमावदार पगडंडियाँ 

कभी ऊपर, कभी नीचे,

कभी सामने, कभी ओझल,

जैसे कोई नटखट बच्ची 

पहाड़ों की ढलान पर 

मस्त दौड़ रही हो. 

 

देवदार के बेशर्म पेड़

घाटी से उचक-उचककर 

लगातार ताक रहे हैं

गाड़ी में बैठी लड़की को. 

 

साफ़ पानी की पतली धार 

थोड़े-थोड़े क़दमों के फ़ासले पर 

अपनी परिचित आवाज़ में 

व्यस्त-सा सलाम करती 

सर्र से निकल जाती है. 

 

न जाने कहाँ से आते हैं 

शीतल,पनीले बादल,

उंगलियों से चेहरों को सहलाकर,

हल्का-सा आलिंगन देकर 

पल-भर में चले जाते हैं. 

 

तुम अजनबी हो तो क्या,

यहाँ तुम्हारा स्वागत है, 

यह नरम-दिल पहाड़ है, 

कोई मैदानी शहर नहीं है. 

***


मेरी यह कविता हाल ही में हिंदी की वेब-पत्रिका राग दिल्ली( Social and Political News - Raag Delhi) में छपी है.