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शुक्रवार, 15 मार्च 2024

७५८. मार्च में कविताएँ

 


मुझे मार्च का महीना पसंद है,

कविताएँ लिखने के लिए 

इससे अच्छा कोई महीना नहीं है. 


मार्च में आम के पेड़ों पर बौर होते हैं,

मदहोश करनेवाली हवाएँ बहती हैं, 

बाग़ों में फूल खिले होते हैं,

पेड़ों पर कोयलें कूकती हैं. 


मार्च में न ठण्ड होती है, न गर्मी,

न रज़ाई चाहिए, न ए.सी., 

न बरसात होती है, 

न पसीना बहता है, 

लिखने का मूड बनता है,

लिखना सस्ता भी पड़ता है. 


मैं मार्च में ख़ूब कविताएँ लिखता हूँ,

मैं मानता हूँ 

कि एक वित्त-वर्ष का लक्ष्य 

उसी में हासिल कर लेना चाहिए,

अप्रैल तक नहीं टालना चाहिए. 

***


शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2024

७५७.अब तो उठ

 


बहुत आराम कर लिया, अब तो उठ,

सूरज आसमान में है, अब तो उठ. 


कब तक बैठेगा मायूस होकर,

फ़िसल रहा है जीवन, अब तो उठ. 


शर्म आ रही थी तुझे हाथ फैलाने में,

वह ख़ुद देने आया है, अब तो उठ. 


किसी को नहीं मिलता बार-बार मौक़ा,

हो रही है दस्तक, अब तो उठ. 


सुना नहीं तूने रोना बेक़सूरों का,

इन्तहाँ हो गई है अब, अब तो उठ. 


आसान नहीं ख़ुद से नज़रें मिलाना,

आईना दिखाना है तुझे, अब तो उठ. 


वैसे तो बंद हैं तेरे कान एक अरसे से,

ज़मीर पुकार रहा है, अब तो उठ.  


गुरुवार, 8 फ़रवरी 2024

७५६.ओ मेरे आँगन के नीम

 



ओ मेरे आँगन के नीम,

इस तरह चुपके से ज़मीन पर 

टहनियाँ न गिराया करो,

मुझे लगता है, 

मेरी दहलीज़ पर कोई आया है. 


मेरे दिल की धड़कनें रूककर 

क़दमों की आहट सुनना चाहती हैं,

मेरे कान उस दस्तक का इंतज़ार करते हैं,

जो कभी किसी ने मेरे दरवाज़े पर नहीं दी. 


ओ मेरे आँगन के नीम,

मैं ही क्यों, तुम भी तो अकेले हो,

फ़र्क़ बस इतना है

कि तुम घर के बाहर हो. 


मेरे अकेलेपन, मेरी वेदना को 

तुम नहीं समझोगे, तो कौन समझेगा?

मेरे दोस्त, मेरे हमसफ़र,

इस तरह मेरे अकेलेपन का 

मज़ाक न उड़ाया करो,

मेरे आँगन में चुपके से 

टहनियाँ न गिराया करो.



गुरुवार, 1 फ़रवरी 2024

७५५. काश, कोई मुसीबत टूटे

 


आज फिर यादें टूट के बरसीं,

आज फिर ग़म के अंकुर फूटे. 


कहाँ तक रखते दोस्तों का हिसाब,

बहुत से मिले और बहुत से छूटे. 


यारों, उसे भी कोई सज़ा मुक़र्रर हो,

जो अपना चैन अपने हाथों लूटे.


हमीं में शायद कोई कमी थी वरना,

सारा ज़माना किसी से किसलिए रूठे?


पाँवों तले जिनके हथेली बिछाई,

उन्होंने दिखाए हमें दूर से अँगूठे.


छूट सी गई है अब चैन की आदत,

काश, आज फिर कोई मुसीबत टूटे. 


शनिवार, 27 जनवरी 2024

७५४. हवा से विनती

 


हवा के झोंके, चले आओ,

उड़ा लाओ बादल बरसनेवाले,

यहाँ सब बैठे हैं इंतज़ार में. 


सूख गई हैं सारी नदियाँ,

पत्थर-से हो गए हैं उनके तल,

सूखे पत्ते छाती से चिपकाए 

निढाल से खड़े हैं पेड़. 


मारे प्यास के अधमरी,

पस्त सी पड़ी है ज़मीन,

जी-भर भीगने की आस में 

बड़े हो रहे हैं नन्हे-मुन्ने।


भर भी दो नदियाँ -बावड़ियाँ,

सींच भी दो प्यासे पेड़ों को,

पिला भी दो जी-भर के पानी, 

मिटा दो ज़मीन की प्यास,

महसूस करने दो मासूमों को 

नन्ही-नन्ही बारिश की बूँदें

अपनी मुलायम हथेलियों पर. 


अब तो रहम खाओ,

बादलों को साथ लेकर 

हवा के झोंके, चले आओ.