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शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

१२.आधा अमरूद

मन फिरे, दिल टूटे,
ख़त्म हुए रिश्ते-नाते.

बँट गई ज़मीन-जायदाद,
अलग हुए बर्तन-भांडे,
संवाद पर लगे ताले,
खिंच गई दीवार आँगन में.

दीवार के इस ओर मैंने
अमरूद का पौधा लगाया,
खाद-पानी डाला,
झाड़-झंखाड़ हटाया,
हवा-तूफ़ान से बचाया,
हरा-भरा पेड़ बनाया.

एक बेशर्म डाली
बिना बताए
चुपके से चली गई
दीवार के उस पार,
उसी पर फला है पहला अमरूद.

मैंने उधर संदेशा भिजवाया है
कि आधा अमरूद इधर भिजवा दें.

शनिवार, 19 नवंबर 2011

११. अनछपी कविताएँ

देखो, जब मैं मरूं,
मेरी अनछपी कविताएँ
मेरी चिता पर रख देना,
पर ध्यान रहे,
वे मेरे साथ जल न जाएँ;
हवाएं जब उड़ायें मेरी राख,
देखना, वे बिखर न जाएँ.

मेरी अस्थियों का हो विसर्जन,
तो साथ हों मेरी अनछपी कविताएँ,
पर देखना, कहीं वे गल न जाएँ.

बहुत प्रिय हैं मुझे
अपनी तिरस्कृत कविताएँ,
नहीं सह पाऊंगा मैं
उनका और अपमान अपने बाद
और न ही उनका अंत.

शनिवार, 12 नवंबर 2011

१०.फिर छूट गया

कुछ नहीं छूटा इस बार दिवाली में-
पटाखे-फुलझड़ियाँ,
खील-बताशे,
फूल-पत्तियां,
रंगोली-दिये,
मिठाइयाँ-नमकीन,
पूजा-अर्चना,
यहाँ तक कि
दोस्तों के साथ पत्तेबाज़ी.

नंबर ढूंढें,
एस.एम.एस. किये सैकड़ों,
पता कर-कर के भेजे,
कार्ड और तोहफे.

सबको सिलवाए कपड़े,
सबको कराई खरीदारी,
सबको दिखाई आतिशबाजी,
पड़ोसियों को गले लगाया.

कुछ नहीं छूटा इस बार दिवाली में,
बस फिर से छूट गया
वही नुक्कड़ वाला घर,
क्योंकि इस बार भी वहां अँधेरा था.

शनिवार, 5 नवंबर 2011

९.अकेला दिया 

दिवाली की रात एक एक कर बुझ गए 
वे सारे दिए जो मैंने शाम को जलाये थे,
एक अकेला दिया जलता रहा भोर तक,
बिना बाती, बिना तेल, 
हांफते-कांपते, अपनी जीवन डोर थामे,
उचक-उचक कर देखता रहा,
आसमान में पूरब की ओर
कि सूरज निकला या नहीं.

ज़िद है उसकी कि नहीं बुझेगा,
लड़ेगा अँधेरे से अंतिम साँस तक,
देखेगा सूरज को आसमान में उगते,
अँधेरे को दुम दबाकर भागते
और फिर बंद करेगा अपनी आँखें.