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शनिवार, 28 नवंबर 2015

१९३. कोशिश



यह सच है 
कि धरती और आसमान 
एक दूसरे से मिल नहीं सकते,
पर मिलने की 
कोशिश तो कर सकते हैं.

हवाएं धरती से धूल उड़ाती हैं,
आकाश की ओर ले जाती हैं,
फिर थककर बैठ जाती हैं.

सूरज अपनी किरणों से 
बिखरा पानी सोखता है,
जो बादल बन जाता है,
बरस जाता है,
मिट्टी में मिल जाता है. 

यह सब बेकार नहीं है,
धरती और आकाश,
जो कभी मिल नहीं सकते,
उनकी मिलने की कोशिश है.

हो सकता है 
कि कोशिश से मंजिल न मिले,
पर कुछ न कुछ तो मिल ही जाता है,
क्योंकि कोशिश कभी बेकार नहीं होती.

शनिवार, 21 नवंबर 2015

१९२. बूँद से


बूँद, अब तो समझ जाओ,
बेकार की ज़िद छोड़ो,
वह आस छोड़ो
जो पूरी नहीं हो सकती. 

आसमान से तुम सीधे 
ज़मीन पर नहीं 
पत्ते पर गिरी,
यह तुम्हारी नियति थी,
पर तुम्हें हमेशा 
पत्ते पर नहीं रहना है.

याद करो वह समय,
जब तुम पत्ते के 
ऊपरी छोर पर थी,
अब फिसलते-फिसलते 
उसकी नोक पर आ पहुंची हो,
बस कुछ पल और,
तुम मिट्टी में मिल जाओगी.

जिस पत्ते पर तुमने 
आश्रय लिया है,
जिस टहनी पर 
पत्ते ने आश्रय लिया है,
जिस पेड़ पर 
टहनी ने आश्रय लिया है,
सब गिर जाएंगे,
मिट्टी में मिल जाएंगे.

दुःख न करो,
हँसते-हँसते गिर जाओ,
मिट्टी में मिल जाओ,
बूँद, सच को स्वीकार करो. 

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

१९१. बहस के बीच में

ताज़ा ख़बरों का पोस्टमार्टम हो रहा था,
किसी ने कुएं में छलांग लगा दी थी,
फ़सल सूख गई थी उसकी.

पुत गई थी उसके चेहरे पर स्याही,
मनाही के बाद भी जो बोलना चाहता था,
क़त्ल हो गया था किसी का अपने ही घर में,
खा लिया था उसने वह जो वर्जित था,
फेंक दी थी आग किसी ने खिड़की से,
ज़िन्दा जला दिया था सोते बच्चों को,
किसी भाई ने दबा दिया था बहन का गला,
ज़िद थी उसकी कि शादी मर्ज़ी से करेगी,
एक छोटी-सी बच्ची का अपनों ने ही 
कर दिया था बलात्कार.

गर्मागर्म बहस के बीच एक बच्चा उठा,
बोला,' बंद करो बहस, मेरी ओर देखो,
मैं अभी अनगढ़, कच्ची मिट्टी सा,
बोलो, मुझे कैसा बनाओगे, कैसे बनाओगे?'

सोमवार, 9 नवंबर 2015

१९०. आनेवाली दिवाली


आनेवाली है दिवाली,
जलेंगे दिए,
बनेंगे पकवान,
सजेगी रंगोली. 

दिए भले कम हों,
पर ज़्यादा घरों में जलें,
पकवान भले कम बनें,
पर ज़्यादा होंठों तक पहुंचे,
रंगोली के रंग भले कम हों,
पर ज़्यादा आंगनों में सजें।

इस बार की दिवाली 
चमकीली भले कुछ कम हो,
पर उसकी रोशनी का दायरा 
पिछली बार से थोड़ा बड़ा हो.