शनिवार, 10 जून 2017

२६३. आओ, चलो

आओ, अब चलो.

वह पहले सा प्रभाव,
पहले-सी सुनवाई,
तुम्हारी एक हांक पर 
दौड़े चले आना सब का,
तुम्हारी एक डांट पर 
साध लेना मौन,
तुम्हारा हर निर्णय 
पत्थर की लकीर समझा जाना -
अब बीते दिनों की बातें हैं.

देखते-ही-देखते 
छोटे हो गए हैं बड़े,
बड़े हो गए हैं समझदार,
तुम्हारी सलाह,
तुम्हारे निर्णय,
तुम्हारे विश्लेषण -
सब पर अब 
एक प्रश्न-चिन्ह लग गया है.

उठो, पहचानो सच को,
महसूसो बदली हुई फ़िज़ां,
समेटो अपनी चौधराहट,
आओ, अब चलो.

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (11-06-2017) को
    "रेत में मूरत गढ़ेगी कब तलक" (चर्चा अंक-2643)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. सटीक....
    समेटो चौधराहट...
    बहुत ही सुन्दर....

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  3. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 21जून 2017 को लिंक की गई है...............http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  4. बड़े लक्ष्य को साधती एक सार्थक रचना।

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